E9 News, नई दिल्ली (ब्यूरो) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दवा कंपनियों की मनमानी पर रोक का जिक्र करते हुए कहा कि मैंने दवाएं सस्ती कीं, तो कई कंपनियां नाराज हो गईं। लेकिन सरकार दवाओं को सस्ता करने को लेकर जल्द ही कानून बनाएगी। पीएम ने कहा कि गरीबों को राहत देने के लिए 40 हजार का स्टेंट अब छह हजार में दिया जा रहा है। साथ ही एक लाख से 1.5 लाख का स्टेंट 20-22 हजार में दिया जा रहा है। लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं और सुविधाएं देने के वादे के साथ सत्ता में आई सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी से इस तरह की बात सुनना वाकई देश के लिए सुखद है। देश में महंगी होती जा रही स्वास्थ्य सुविधाओं को आम आदमी की जद में करने के लिए वाकई कानून की जरूरत है, वरना तो निजी अस्पतालों का महंगा इलाज और सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा ने स्वस्थ जीवन की कल्पना ही बेमानी कर दी है। देश में लगातार महंगी होती जा रही दवाओं को लेकर एक ठोस नीति की दरकार काफी समय से महसूस की जा रही थी, मगर आज तक कोई उपाय नहीं खोजा जा सका। अब जबकि प्रधानमंत्री ने दवाओं के दामों को संतुलित रखने के लिए कानून लाने की बात कही है, तो गरीब वर्ग के लोगों को काफी सहूलियत मिलेगी। अगर दवाओं के अर्थशास्त्र को समझें, तो पता चलेगा कि कंपनियों से निकलने वाली दवा बाजार में आते-आते किस कदर महंगी हो जाती है। विश्व के 22 प्रतिशत रोगी भारत में हैं तथा विश्व की कुल दवा का दो प्रतिशत यहां उत्पादन होता है, जिसमें केवल 0.7 प्रतिशत आवश्यक दवाएं हैं। 1.3 प्रतिशत दवाएं आवश्यक दवाओं की श्रेणी में नहीं आती हैं और महज दवा कंपनियों द्वारा अपने आर्थिक लाभ को देखते हुए निर्मित की जाती हैं। देश में लगभग 20 हजार दवा कंपनियां हैं, जो एक लाख से भी अधिक प्रकार की दवाओं का निर्माण करती हैं। इस उद्योग का सालाना टर्न ओवर लगभग 280 अरब डालर है। जहां आवश्यक जीवन रक्षक दवाओं की कमी है, वहीं ऐसी दवाएं जो कम गुणकारी और अनुचित हैं, उनका निर्माण अधिक होता है। देश में 60 से 70 फीसदी तक ऐसी दवाएं हैं, जिनको बेचने की इजाजत नहीं है। फिर भी दवा उद्योग का दबाव इस कदर हावी है कि कंपनियां सरकार द्वारा नियंत्रित पुरानी दवाओं में थोड़ा बदलाव कर नई दवा बाजार में उतार देती हैं और उस पर से सरकारी नियंत्रण खत्म हो जाता है। यही कारण है कि विश्व में तीसरा सबसे बड़ा दवा निर्माता राष्ट्र होने के बावजूद यहां की 60 फीसदी जनता को जरूरत पर दवाएं नहीं मिल पाती हैं। सरकार काफी दिनों से डॉक्टरों से जेनेरिक दवाएं लिखने की अपील कर रही है, ताकि मरीजों को सस्ती दवाएं मिल सकें। जेनेरिक दवाएं ऐसी हैं, जो कंपनियों की दवाओं से आधे से भी सस्ती हैं। कमीशन ऑफ मेक्रो इकोनॉमिक्स एंड हेल्थ की गणना के अनुसार, भारत के सभी बाह्य रोगियों को यदि मुफ्त में उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं दी जाएं, तो उसका खर्च केवल नौ हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष होगा, जबकि भारत में ब्रांडेड दवाओं का घरेलू दवा बाजार 62 हजार करोड़ रुपए का है। दवाओं को महंगा करने के लिए कुछ हद तक डॉक्टर भी जिम्मेदार हैं। देश के कई डॉक्टर कंपनियों के लालच में फंसकर ऐसी दवाएं मरीजों को देने लगते हैं, जो मर्ज ठीक करने के बजाए फायदा कमाने के लिए बनाई जाती हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दवा उद्योग द्वारा बनाई जाने वाली 20 फीसदी दवाओं से ही सभी बीमारियों का इलाज संभव है। 80 फीसदी दवाएं सिर्फ कमाई के लिए बनती हैं। ऐसा नहीं है कि इस स्थिति से सरकारें अनभिज्ञ हैं। पहले की सरकारों ने तो इस दिशा में सोचा तक नहीं। अब प्रधानमंत्री ने दवा कंपनियों पर सख्ती की बात की है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों को राहत मिल सकेगी।
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