E9 News, नई दिल्ली (ब्यूरो): पहले लोकसभा चुनाव में और अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ढेर हो जाने के बाद सपा/बसपा के नेताओं के स्वर एकता के लिए उठने लगे हैं… हालाकि अंतिम फैसला मायावती और अखिलेश यादव को लेना है और इसके लिए बेमन से ही सही, दोनों तैयार हो गए हैं लेकिन तब भी राह इतनी आसान नहीं है. अब तक तो उनके निर्णय के खिलाफ जाने की किसी की हिम्मत नहीं थी लेकिन चुनाव के बाद बदले हालात में उनके आदेशात्मक स्वर कमजोर पड़ गए हैं… भाजपा से तो खैर, दोनों बाद में निपट पाएंगे पहले अपनो के विरोधी स्वरों को नियंत्रित करना बड़ी चुनौती है! लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद विपक्षी पार्टियों ने 2019 में बीजेपी को रोकने के लिए अभी से रणनीति बनाना शुरू कर दिया है. भाजपा के विजयरथ को रोकने के लिए अधिकतर गैरभाजपाई नेताओं का मानना है कि चुनाव पूर्व सपा-बसपा का गठबंधन हो जाना चाहिए. कई दिग्गज नेता भी यही मानते हैं कि भाजपा के हाथों लगातार दो हार के बाद सपा को बसपा को जल्दी-से-जल्दी हाथ मिला लेना चाहिए. इधर एक नई परेशानी और खड़ी हो रही है कि हार से निराश कई गैरभाजपाई भाजपा की ओर रूख कर रहे हैं जिससे सैकेंड लाइन के नेता यदि इधर-उधर होते हैं तो संगठन की जमीनी गतिविधियां कमजोर पड़ेंगी! यूपी विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद सपा-बसपा गठबंधन मजबूरी है. खबरें हैं कि… सपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों की राय भी है कि दोनों पार्टियों… सपा-बसपा के लिए गठबंधन बहुत जरूरी है! सपा-बसपा गठबंधन पर सारे देश की निगाहें हैं क्योंकि… महागठबंधन का राष्ट्रीय भविष्य इसी पर निर्भर है! ये दोनों दल एक मंच पर आएं तो ही राष्ट्रीय महागठबंधन का रथ आगे बढ़ पाएगा और इसीलिए नीतीश कुमार से लेकर लालू प्रसाद तक इस संबंध में अपील कर चुके हैं! सपा-बसपा गठबंधन को लेकर मायावती ने अब जा कर चुप्पी तोड़ी है… लेकिन इसमें जरूरत कम मजबूरी ज्यादा झलकती है! लगातार हार से परेशान बसपा की सैकेंड लाइन के नेता अपनी राह बदल सकते हैं क्योंकि यह साफ हो गया है कि सपा/बसपा का वोट बैंक अब सुरक्षित नहीं है और किसी भी दल का नेता/कार्यकर्ता, पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक, हर जगह विपक्ष में बैठना नहीं चाहता है! सपा-बसपा गठबंधन में सबसे बड़ा रोड़ा रिश्तों में खटास पैदा करनेवाली पुरानी घटनाएं हैं, खासकर 1995 का गेस्ट हाउस कांड सपा-बसपा को एक साथ लाने से रोक सकता है! लेकिन… अब अगर पीछे की ओर देखते रहे तो आगे की गणित बिगडऩे में ज्यादा देर नहीं लगेगी! सबसे पहले मायावती की राज्यसभा सदस्यता का सवाल आ रहा है… अगले साल मायावती की राज्यसभा सदस्यता के खत्म होने के बाद यदि सपा साथ नहीं देती है तो बसपा के पास पर्याप्त संख्या बल नहीं है जो मायावती को दोबारा राज्यसभा भेज सके! यह पहला अवसर होगा जब बसपा के असली इरादे सामने आएंगे!
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